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Monday, September 14, 2015

हिंदी दिवस.. LOL

आज हिंदी दिवस है. और इस 'trivial fact' का पता भी मुझे अपने उस हिंदीप्रेमी मित्र से चला जिसने सुबह-सुबह संदेश भेज कर बताया कि 'Today is Hindi day, you know. Let's celebrate it feel proud of our mother tongue.' बहुत देर तक तो मै ये सोचता रहा कि आखिर अगर आज हिंदी दिवस है तो पठ्ठे मे अंग्रेजी में संदेश क्यो भेजा?

बहरहाल, जब हिंदी दिवस की बात निकल ही गई है तो बता दूँ कि मैं तब विद्यालय में हुआ करता था जब पहली बार मुझे हिंदी दिवस के बारे में पता चला. मैं तब यह नही समझ पा़या था कि हिंदी भाषी 'देश' होने के बावजूद हम हिंदी के लिए एक दिवस निर्धारित कर के क्या करना चाह रहे हैं? मुझे बताया गया था कि हिंदी हमारी 'राष्ट्रभाषा' है. फिर जैसे जैसे बडा होने लगा जानकारी के अभाव से अंधकारमय कमरे में छोटी छोटी खिडकियाँ रोशनी बिखेरने लगी. इसी बीच मेरा संपर्क उन 'proudly Indian' टाईप लोगो से भी हुई जिन्हे हिंदी नही आने पर गर्व होता था. दरअसल तभी पता लगा कि कांवेंट टाईप इस्कूलों में हिंदी बोलने पर फाईन लिया जाता है. वही बच्चे बडे होकर 'I can't even understand a sentence of Hindi. Hehehe.' बनते है. दरअसल हिंदी दिवस इन्ही महानुभावो के ego boost के लिए है कि बेटा, हिंदी गवाँरो की भाषा है, और तुम ठहरे cool dude टाईप शहरी.

खैर, मैं हिंदी के हिंगलीश बन जाने को हिंदी पर खतरा नही मानता. हिंदी को अगर खतरा है तो उन हिंदीवादियों से जो हिंदी को एक धर्मविशेष की भाषा मानते हैं. भाषा कोई भी हो, उसे किसी धर्म या जाति विशेष से जोडना उसके सेवा क्षेत्र को सीमित करने जैसा है. हम इसी मानसिकता से संस्कृत को लगभग बर्बाद कर चुके है. संस्कृत को ब्राह्मणो की भाषा घोषित तो किया ही, उसे संस्कृति से जोड कर पेश किया जाने लगा. इतना बोझ संस्कृत के बूढे हो चले कंधे सहन नही कर पाये. नतीजा सामने है. हिंदी को खतरा उन हिंदीप्रेमियों से भी है जो हिंदी को 'राष्ट्रभाषा' बताते है और ये कोशिश करते है कि हिंदी को राष्ट्र-स्तर पर लागू कर दिया जाए. हमें ये बात समझना और स्वीकार करना होगा कि भाषा के साथ न्याय तभी हो सकेगा जब वो इतना लचीला हो कि लोग स्वयं उसे अपनाना चाहें. इसका सबसे सफल उदाहरण अंग्रेजी है.

हमारे मोहल्ले में एक चच्चा रहते थे. हैं. हिंदी के जबर समर्थक. हिंदी पखवाडा पर हिंदी के गुणगान गाते नही थकते थे. हिंदी समर्थक पार्टी के कार्यकर्ता हुआ करते हैं. हिन्दी पर अच्छी खासी पकड जान पडती है. उनका चार वर्षीय लडका का दाखिला हमारे विद्यालय में ही हुआ. बच्चा बाप की तरह ही तेज-तर्रार. कविताएँ तो पठ्ठे ने स्कूल के दूसरें ही दिन कंठस्थ कर लिया था. क ख गघ से लेकर, पूरा ककहरा एक साँस में ना सुना दे तो हार मान लूँ. इसी बीच हिंदी पखवाडा भी आ गया. चच्चा को तो जैसे साँस लेने की फुर्सत ना थी. लोगो की भीड लगी थी. चच्चा हिंदी की महिमामंडन कर रहे थे. सबको अपने अपने बच्चों को हिंदी माध्यम में पढनें को प्रेरित कर रहे थे. तभी उनकी नदर मुझपर पडी सो देखकर मुस्कुराते हुए हिन्दी का गुणगान करने लगे. भाषण खत्म होते ही मेरे पास आकर बोले कि बेटा शाम को हम तुम्हारे घर आएंगे, कुछ जरूरी बात करनी है. चच्चा शाम को दर्शन दिए और बोले बेटा, अपना चिंटू तुम्हारे स्कूल में ही पढता है. जरा ध्यान देना उसपर. जी चच्चा, जरूर. अच्छा बेटा, बात ये थी कि मेरा चिंटू पढने में अव्वल है. हिंदी में तो उसकी उम्र का कोई उसका हाथ नही पकड सकता. लेकिन अंग्रेजी में उसका हाथ थोडा तंग है. मैं सोच रहा था कि तुम थोडा समय निकालकर उसे ट्यूशन दे दो तो कैसा रहेगा. अरे अंकल, अभी तो छोटा है. धीरे धीरे सीख लेगा. स्कूल में इसकी मैडम अच्छा पढाती हैं. ट्यूशन की जरूरत नही पडेगी. अरे बेटा, तो क्या हमेशा इसी स्कूल में पढेगा? कार्मल में टेस्ट दिया था लेकिन अंग्रेजी निकाल नही पाया तो यहाँ एडमिशन करवा दिया. अब तुम थोडा ध्यान दे दो तो सीधे अगली क्लास मे एडमिशन मिल जाएगा. फ्यूचर सेट हो जाएगा. बोलो क्या कहते हो? उसके बाद क्या हुआ, ये बताने की जरूरत नही है. लेकिन हिंदी पखवाडे का महत्व मैं जान चुका था.

हिंदी बहुत ही सरल और सहज भाषा है. लेकिन ये तब तक अपने हक से वंचित रहेगी जब तक इसमें उदारता नही आ जाती. समय और जरूरत के हिसाब से अन्य भाषा के शब्दों का समावेश होते रहना चाहिए. साथ हीं हिंदी को सम्मान तभी मिलेगा जब हम उसके समकक्ष सभी दूसरी भाषाओं और उसको बोलने वालों के प्रति सम्मान की भावना रखें. हिंदी को हिंदीवादियों और संस्कृतिवादियों से बचा लो, हिंदी विश्व की सर्वोत्तम भाषाओं में से एक हो जाएगी.

Saturday, September 12, 2015

बिहारी होना बिहार होना कतई नही है.

बिहार में चूनावी बिगुल बज गया हैं. और इसी के साथ शुरू हो गया है गैर-बिहारीयों का बिहारियों से ये पूछना कि इस बार किसका चांस लग रहा है? और तिसपर बिहारी ऐसे फूल जा रहे है जैसे बिहार की स्थापना इन्होने ही की हो. लौंडे दिल्ली से आनेवाली ट्रेन से उतरकर अपने गाँव पहुँने में तीन बार रास्ता भटक जाते हैं लेकिन बिहार के कौन से विधानसभा सीट से कौन आ रहा, इनके पास पूरी एक्सेल शीट तैयार मिलेगी. फलां सीट ने ढिमका नेता की जीत वो इतनी सरलता और सहजता से कह जातें है कि एकबारगी चुनाव आयोग भी सोच में पड जाता है कि चुनाव कराएँ या सीधा नतीजे घोषित कर दें? इनकी भविष्यवाणी में इतना कॉन्फिडेंस होता है जितना उस प्रत्यासी को भी नही होता जिसने चुनाव प्रबंधन में करोडो रूपये खर्च कर दिया हो.

गैर-बिहारी लोग बिहारियों से ये सवाल इस मासूमियत से करते है जैसे बिहारी होने का मतलब बिहार होना हो. और हम बिहारी लौंडे भी भोकाल देने में मोदी जी से कतई कम नही हैं. लेकिन इससे फर्क नही पडता है. फर्क पडना भी नही चाहिए और मुझे भी नही पडता अगर मुझसे ये सवाल बार बार नही पूछा जाता. मैं इस सवाल के जवाब देने से कतराता हूँ. इसकी वजह ये है कि देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल चल रहा है, मेरा जवाब गलत साबित होने पर कहीं मुझसे नैतिकता के आधार पर इस्तीफा नही मांग लें सब. सब के अंदर एक रविशंकर प्रसाद होता है भाई.

बहरहाल, कहने का तात्पर्य ये है कि ये सवाल पूछना बंद किजिए की इसबार कौन कहाँ से जीत रहा है. इसका सटीक उत्तर किसी के पास नही है. और अगर होता भी तो उससे क्या फर्क पड जाता? जवाब तो आप वही सुनना चाहते है ना जो आप पहले से मान चुके है.  लेकिन मै यहाँ एक बात साफ कर देना चाहता हूँ कि बिहार की राजनीती को समझना बडी टेढी खीर है साहब. यहाँ कौन सा उँट कब किस करवट बैठ जाए ये आप ठीक ठीक नही बता सकतें. आप क्या, ये बात तो उस ऊँट को भी पता नही होगी कि अगले पल वो किस करवट बैठेगा. अजी करवट छोडिये, कई बार तो आप पूरे समय जिसे ऊँट समझते ऱहें हो, वही गदहा निकल जाता है. खैर, कहने का पुनः तात्पर्य ये है कि बिहार की राजनीती को आखिरी बार अगर किसी ने ठीक-ठीक समझा है तो वो आज से तेईस सौ साल आचार्य कौटिल्य थे. और वो भी इसलिए क्योंकि गुरूवर नें इस राजनीति शास्त्र विधा का इजाद किया था.

बिहार में चुनाव का इतिहास रहा है कि जीत किसी की भी हुई हो, हार हमेशा बिहार की ही होती है. यहाँ आपकी जाति तय करती है कि आप कितने इमानदार हैं. आपका धर्म इस बात का मानक होता है कि आप कितना विकास करना चाहते है. और इस बिना पर मैं ये तो नही बता सकता हूँ कि बिहार में कौन जीतेगा, लेकिन जिस तरह का माहौल है, ये तय है कि बिहार एक और हार की ओर अग्रसर है.

आखिर में यही कहना चाहूँगा कि क्लोरमिंट खाइये, और दोबारा मत पूछिये. चूनाव है, इसका मजा लिजिए. जोक बनाइये, जोक का हिस्सा बनिए, लेकिन जोक मत बनिये. लोकतंत्र का मजा जोकतंत्र में ही है. बाकि जो है सो हइये है.

A banker's dear diary moment.

A customer got frustrated when I took more than usual time in cheque posting, as the image was not loading. After few gestures, he cried out: Are you going to give me cash or what?
Me: Sir, our system is little slow at this moment. Please bear with us.
C: No no no. This is not a good customer service. Customer is king, do you know that?
Me: Certainly Sir. I am aware of it. But I am told that ours is a democratic nation.
He went to Manager to complaint against me. Manager called me in.
Me: Ma'm, in my defense, I was doing my job as fast as I could, but I can't expedite the image loading and cannot post the cheque without verification, come what may.
C: But I am VIP customer of your branch. Can't you see that in your same fucking slow system.
Me: Oh, I am really sorry Sir. I have a weird habit of deliberately ignoring the trivial things. My bad.
C: See, madam. This is how a customer should be treated? He must understand that customer is god.
Me: Well, ma'm. I am sorry. And I only have to say that I am an atheist. A nonbeliever. May I please go back to my counter, or more customers will turn up to complain about me for not attending them?

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In the evening, me and Branch Manager, both were laughing over conversation.

There is something money can't buy.

AD 2025.

“But why can't we have a car, Papa? I hate walking so long.” Pappu asked his father Guddu as they were returning from his school.
“Because I can't pay the tax as much as the cost of the car, son.” , Guddu told his son.

“But most of the kids in my class have cars in their family. How come they can afford it and we can not? You earn better than them, right?”
“Yes Pappu, I earn more but they don't have to pay any tax. And we are not discussing this topic, Okay?”

“Okay... Ummm... can we take the bus, then?” kid chuckled.

“You don't like standing in the packed bus, do you? Seats are reserved for SC/ST and OBCs. We don't even belong to minority or this state. And please don’t ask anything else for now. I am tired working all day in office.” Guddu replied.

For next 15 minutes, they walked in silence. But the kid was not able to walk any longer, so was the case with his father. They sat on a bench in a park but had to pay a fine of 250 Rs. because the bench was reserved for SC/ST only. As they reached their home, there was no electricity. It was Tuesday. There is power cut on every Tuesday, Thursday and Saturday to provide sufficient power supply to minorities’ houses in order to ensure their upliftment. They slept in boiling hot summer night. They had to. They were from General Category.

Next morning, it was Independence Day. The newspaper was colorful and words appeared as if carved over tricolor. Pappu was elated. He is having a holiday. All his friends also having holiday including Ramesh, who got admission in top school of the city with meager 53% marks. Pappu was denied admission because he, despite having secured 96% marks was not as eligible as Ramesh. Marks are just a number. A state of mind. But he never understands why he was denied the admission. Although it felt weird when Ramesh used to tell him about all the interesting stuff he’d do in school. The facilities he boasts about, the English speaking teachers. He envied. It’s least he can do.

 Anyway, he played all day with his friends. It was much needed holiday. He didn’t care about the homework assignment for which he is going to be reprimanded for sure. He and few of his friends will be punished while some other will watch them kneeling down in punishment and mock them. No, some students are not allowed to be punished as per the new bill passed by the government. But he didn’t care for punishment either.

At evening, while he was reading a kids suppliment given free of cost with newspaper he came across a little story. This is the only part of newspaper he cared. Specially designed for kids. Comics, stories, cartoons and fun activities, that’s all are the ingredients of this part. Nevertheless, he read the story which has the moral saying something about Reservation. It was too complex for his little head to understand.

"What is reservation, Papa?” perplexed Pappu asked his father.

“What makes you ask such questions, son?” Guddu dreaded about the situation. He didn’t want to answer the kid. He himself couldn’t understand the issue in the first place.

“I want reservation, dad. All my friends got a reservation.” He announced as his desperation was pushing him at the verge of tears.

“We can’t have a reservation, beta. We just can’t. You can ask anything else if you want.” Guddu was taken aback. He never expected such demand from his kid. Never.

“I want reservation only. Mujhe reservation chahiye, bas, kah diya.” He started crying. He kept repeating his demand between his sobs.

“Alright, alright, kid. Listen, Papa is under too much debt this year. I will buy you reservation next year. Promise. Now my intelligent son will give his Papa a hug. Won’t he?” Guddu made him understand.

Guddu knows that he cannot afford to buy his son reservation. But he still hopes that his son will understand the stupid concept by his next birthday. He isn’t sure about it either, but hoping so was the only resort for him.

मै और मेरी डिग्री, अक्सर ये बातें करते हैं.

रात की तनहाइयों मे,
दिन की परछाइयां मे,
बैठकर अकेले मे,
मै और मेरी डिग्री,
अक्सर ये बाते करते है,
कि तुम ना होती,
तो ऐसा होता,
तुम ना होती,
तो वैसा होता।

तुम ना होती,
तो बच जाते वो लाखो रूपये,
जो पिताजी ने खेत बेचकर लगाये थे,
कुछ बैंक से कर्ज भी उठाये थे,
सब तुम्हारी खातिर ऐ डिग्री,

तुम ना होती,
तो मेरी रातें कैसी होती,
दारू के साथ वो बातें कैसे होती,
वो मशीन डिजाइन क्या होता,
वो फ्लुइड मैकेनिक्स कैसे होती,

तुम ना होती,
तो वो चार साल कैसे होते,
जो बिताये मैने रट्टा मारते,
कभी फर्रो के दम पर,
कभी नकल के भरोसे,
मेरे पास होने की,
मगर वजह क्या होती।

तुम ना होती,
तो मेरी प्रोक्सी कैसे होती,
बिना फाइल के वो वाइवा कैसे होती,
बिना लेक्चर के वो क्लास कैसी होती।

आज तुम साथ होकर भी,
लगती हो गुनाह सी,
जैसे पाना तुमको,
कोई दौलत हराम की,

आज फिर सुना घर पर,
बेरोजगारी के ताने,
वही रोज के राग,
वही पुराने अफसाने,

सुना है अब तुम्हारी कोई औकात नही,
तुझमे अब वो पहले जैसी बात नही,
अब वो इज्जत, वो जज्बात नही,
खुश है वो, तुम जिसके साथ नही,

अब डिग्रीधारियों की हालत,
कुछ यूं हो चली है,
ना साथी ना प्रेमी,
ना इज्जत मिली है।

मै और मेरी डिग्री,
अक्सर ये बाते करते है,
कि तुम्हारा अब कोई वजूद नही,
साथ हो सबके, मगर मौजूद नही,
तुझे पाना जितना कठिन था,
तुम्हें रख पाना उससे भी कठिन है,
ये जीत है अगर, तो जीत ये कठिन है,
तुम्हें पा लेने का गम, खोने से कठिन है।

मै और मेरी डिग्री,
अक्सर ये बातें करते है,
कि अब जबकि,
तुम्हारी कोई जरूरत नही है,
तो क्यो ना चनाजोर गरम बेचूं,
तुझमे लपेटकर,
तेरी नालायकी की सजा,
सिर्फ मै ही क्यों सहूं।
मै और मेरी डिग्री,
अक्सर ये बातें करते है।
कि तुम ना होती,
तो कैसा होता।

Sunday, August 23, 2015

Deja vu

"Do you still love me?" He asked, unsure about his existence in her life. He had been away since they last met, on Valentine's day eve, when he promised her to see her next morning. Promised to take her out. She was always waiting for him to ask her out. And her heart leaped out with joy when she'd go out with him on Valentine's day. It would be their first date, officially. But he never showed up next morning. Or any other following morning for that matter.

She remember how embarrassing it has been for her for so many weeks. How could she forget the betrayal she felt? How could any girl would felt, if being in her place? She clearly remember that evening when he bid her good evening, and promised to pick her up at 10 in the morning. 'Sharp at 10' he said. She was overjoyed. She was more than happy that evening, anticipating her date due next morning. She was too excited to cloak her feeling and blurted out everything to her roommate, even without pressing her to elaborate. Her roommate, in turn had spread the news like a fire in the jungle among all the friends they knew. Suddenly she has become Ms. I-think-I-am-in-love and she liked the attention she'd be getting. She had spent the night selecting the best dress she would wear on her date. She dig her wardrobe to choose the best she could. She was looking into mirror every five minutes and blushed at herself thinking the compliment he would give her next morning. She had never looked at herself the way she's looking now. Everything was looking good, as if customized to compliment her. She'd felt special like never before.

She dressed in pink, like he always said about his favorite colour. She was ready to be picked up from her college hostel. But he never came. No phone call, no message, nothing. She even tried his number but never connected. Then after these rigorous five months, she finally managed to get over him. At least she believed she does. But he suddenly returns to ask whether she love him anymore. All her effort gone into vain within a matter of few seconds. She'd never forgive him, she had been deciding already, every evening.

"You just please go away. I don't want to see your face, you bloody cheat." She yelled her lungs out.

No response.

She looked around but nothing was visible. The room was as dark as it could be. A wave of fear ran through her spines. She was scared. Scared as hell.

"I don't like such stupid jokes, Mohit. Don't mess with me. Why don't you freaking go away from my life. I don't want to see you. Not anymore. Why don't you understand that?" She screamed out loud.

Still no voice. Then in following few seconds the room filled with bright white light illuminating the room. She strained her pupils to figure out the person behind that shadow against tubelight.

"Will you stop screaming at this hour of night. People need to sleep. I need to sleep, for heavens sake." Naina, her roommate screamed at her.

"But Mohit is teasing me. He wants me to forgive him." She said meekly.

"For god sake, Richie. You need to seek a psychiatrist. I am gonna take you to Dr. Vineeta's whether you want it or not. I don't want you to punish me for a guy died five months ago. You are coming and it's decided. Now sleep and let me sleep. Will you?".

Wednesday, March 4, 2015

Ban INDIA's DAUGHTER: शुतुरमुर्ग सभ्यता की ओर एक और प्रयास


भारत सरकार ने एक बार फिर वो कर दिखाया जिसमे उसे महारत हासिल है – प्रतिबन्ध. BAN. बैन पहले भी लगते रहे है, और यक़ीनन आगे भी लगते रहेंगे. प्रतिबन्ध हमारे समाजिक विकास का वाहक बन चूका है. अब शायद हम उस स्वर्ण-युग से गुजर रहे है जहाँ अगर दो-तीन हफ्तों में कोई बैन नहीं लगता तो शक होने लगता है की कहीं ‘डेमोक्रेसी’ नाम के खिलौने की बैट्री डिस्चार्ज तो नहीं हो गया? वैसे डेमोक्रेसी और बैन का चोली-दामन का साथ है. जब तक बैन न लगे हमे पता ही नहीं चलता की वो वस्तु, या विचार, या अभिव्यक्ति, जिसे प्रतिबंधित किया जा रहा है, वो कभी अस्तित्व में थे भी या नहीं? वो अंग्रेजी में क्या कहते है... बैन इज द ड्राइविंग फ़ोर्स ऑफ़ डेमोक्रेसी.

अभी गो-मांस पर लगे बैन के बारे में तमाम वाद-विवाद-परिवाद-धर्मवाद-भाग्वावाद-टोपीवाद-मुरादाबाद-अहमदाबाद के बारे में पढ़-सुन ही रहा था की भारत-सरकार ने टाइम-पास का एक और झुनझुना पकड़ा दिया. निर्भया रेप-कांड पर बने डाक्यूमेंट्री को प्रतिबंधित कर के. यकिन मानिये दोस्तों, इस डाक्यूमेंट्री के बारे में कुछ छः महीने पहले खबर पढ़ी थी की ऐसा कुछ प्रयास हो रहा है. फेसबुक पर कई क्रान्तिकारी पोस्ट भी चेपे थे लेकिन उसके एक हफ्ते बाद ही सब कपूर की तरह हवा हो गया. और हो भी क्यूँ ना, हम कोई चुनाव थोड़ी लड़ रहे है जो मुद्दों की कमी का एहसास हो? ये तो भला हो भारत-सरकार का जिसने एक बार फिर याद दिला दिया की हम ने इस मुद्दे पर भी क्रांति का भी बीड़ा उठाया था. वैसे जिस देश में तीस करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हो, बीस करोड़ से ज्यादा शायद एक वक़्त का भोजन भी नहीं जुटा पाते हो, जहाँ चालीस प्रतिशत सांसद-विधायक आपराधिक छवि के हो, वहां की सरकार अगर इतनी प्रयत्नशील है की किसी फिल्म, या कार्टून या किताब को प्रतिबंधित कर दे तो यकीन मानिये, हमे फिर से विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता. विज्ञान भी नहीं.

एक बात और, प्रतिबन्ध का मतलब होता है सरकारी खर्चे पर प्रचार. आजतक ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं सुना जहाँ प्रतिबंधित वस्तु का इस्तेमाल रुक गया हो. गोया उसकी मांग और बढ़ जाती है. अभी पिछले महीने की बात है, अहमदाबाद में कुछ मित्र मिले और तय हुआ की दारु से दोस्ती को सींचने की. अब चूंकि शराब को तौबा कर चूका मैं इस बात से खुश भी था की गुजरात में मदिरा प्रतिबंधित है तो मुझे दोस्तों में साथ होते हुए भी अकेलेपन का एहसास नहीं होगा. लेकिन जहाँ चाह होती है, राह निकल ही आती है. पांच सौ रुपये की बोतल बारह सौ में घर पहुँच गया. दिलवाया भी लोकल MLA के चमचे ने. इसीलिए मेरा मानना है की प्रतिबन्ध का हमारे जीवन में बहुमूल्य योगदान है. बल्कि मैं तो कहता हूँ की बैन एक अखिल-भारतीय प्रयास है उन विचारो को हमारे जेहन में लाने का जो शायद कभी आते ही नहीं. उदहारण के तौर पर, सलमान रुश्दी के नाम से मेरा परिचय तब हुआ जब फतवा और बैन जारी हुआ. MF हुसैन साहब भी शायद कभी कभी मेरी बातों का हिस्सा न होते. और ऐसे हजारो ख्याल, या नाम, या कार्टून, किताबें, फिल्में, गाने, धारावाहिक वगैरह शायद कही गुमनामी के अंधेरों में रौशनी के एक किरण की तलाश में घुट-घुट कर मर जाते लेकिन उनको वो सब नसीब नहीं होता जो प्रतिबंधित होने के बाद मिला.

हम सरकार चुनकर भेजते है की वो हमारे लिए नीतियाँ बनाये, उनका अनुपालन करें और देश को एक ऐसी मजबूत अर्थव्यवस्था बनाये जहाँ हमे ये कहने में कोई शर्म न हो ही हम एक मजबूत अर्थव्यवस्था है. जिस देश में एक-तिहाई आबादी के भोजन की व्यवस्था न हो वो अगर अपनी अर्थव्यवस्था कुछ दो-चार पूंजीपतियों के सहारे आगे बढ़ाना चाहे तो इसमें भी कही न कही देश-हित ही निहित होगा. लेकिन हम बात कर रहे थे प्रतिबन्ध की. मुद्दों से भटकना मेरी पुराणी आदत है, माफ़ी चाहूँगा. खैर... कहीं पढ़ा था की जहाँ से इंसान के सोचने की हद्द समाप्त होती है वहाँ से दोराहा शुरू होता है. दोराहा यानी दुविधा... क्या करें क्या न करें ये कैसी मुश्किल हाय....  दोराहा-जहाँ एक तरफ तो हमे एक कठिन रास्ता मिलता है जिसपर चलने के लिए असीम धैर्य और दूरदृष्टि की जरूरत होती है. आशावाद तो खैर प्राथमिक जरुरत है हीं. दूसरा रास्ता होता है आसान रास्ता जिसके लिए किसी आपको ज्यादा सोचने-समझने की जरुरत नहीं होती है. बस सिक्का निकालिए, टॉस करिए और पारी की शुरुआत कीजिये. मजेदार बात ये है की दोनों ही सूरत में परिणाम दूरगामी होंगे.

बहुत दिनों बाद कुछ लिखने का प्रयास किया है... अगर उमंग में कुछ ज्यादा हो गया तो कहीं मेरा ब्लॉग भी प्रतिबंधित न जाये. आखिर ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ जैसी टुच्ची चीजों के लिए हम ‘देश-हित’ को नुकसान थोड़ी होने देंगे.

A letter to friends who keep tagging me in their Happy Moments.


Dear friends who keep tagging me in random posts mocking dissent in Aam Aadmi Party​,

I would like to thank you for taking your valuable time out for sparing a moment for me. It means a lot. And I would also like to share the zeal and enthusiasm over the sadistic pleasure you are enjoying because deep down the heart I am a looser too. Also, I feel great for you guys as you keep tagging me in the posts which are less funny and more an attempt to convince oneself that democracy is the collection of necessary agreement of ideas..

Besides, if it will give you some more pleasure, let me confess that I am also pained at seeing such development in a party I share my emotions with. It irked me that some people within the party itself are trying to bring it down, perhaps unintentionally/unknowingly to a level closer to those whom we were trying to expose. One thing I understand that you are not happy that AAP is withering, you are happy because you believe that AAP is no longer better than the other parties. And there is nothing wrong in such believe, believe me. It's normal. Absolutely.

But I would also like to tell you that this doesn't bother me. I am prepared for this. Not this in particular, but something like this, because it is quiet obvious that when a collective set of body is aspiring to move at a faster pace, it is quiet obvious that some part of it withered during the process. It is also obvious that the force driving them in a direction is a collection of several kind of forces including some negative forces, and according to Principle of Superposition, it is the collective force which move the body and not a particular individual. It's simple Physics, not a Rocket Science equation. It would be quiet idiotic on my part to assume that AAP is an ideal establishment (or anti-establishment, if you'd like to call it). My argument was always based upon the perception that it is relatively better than other choices available. Also the nature has bestowed me with a little piece of mind which allows me to tell wrong a wrong, even if it is served after wrapping it in the adorable cover of Honesty or Nationalism. So, I am sad but not shocked, and hence I am sorry for disappointing you at this front.

And now that we are discussing what is happening in AAP is democratic or not, let's not talk on relative basis simply because I don't want to challenge the reason of your happiness. Good day my dear friend. Have a happy and 'democratic' day ahead.
                                                                                     
Your's Aapiya friend who refuse to ignore evolution.

About Me

Bhopal. Delhi. Mumbai., India
A grammatically challenged blogger. Typos are integral part of blogs.